लेख सार : हर परिस्थिती में सदैव प्रभु कृपा के दर्शन करने का आह्रान करता लेख |
____________________________________________
जीव पर पल पल, हर पल प्रभु की कृपा- वृष्टि होती रहती है । उस कृपा के दर्शन करने हेतु हमें भक्ति-नेत्र चाहिए । मनुष्य अपने साधारण नेत्रों से अपने जीवन में प्रभु कृपा का पूर्ण अनुभव नहीं कर पाता । प्रभु के कृपा के ऋण से उऋण होना जीव के लिए कतई संभव नहीं, इसकी कल्पना तक नहीं करनी चाहिए ।
जीव को जो करना चाहिए वह यह कि प्रभु कृपा का निरंतर पात्र बने रहने का यत्न करते रहना चाहिए और ऐसा करने के लिए भक्तिपथ पर चलना अनिवार्य है ।
जब हम अपने जीवन में प्रभु कृपा के बारे में सोचेंगे तो पायेंगे कि माता के गर्भ में छटपटाते हुए भयंकर पीडा में हमें प्रभु कृपा का पहला दर्शन होता है, जब प्रभु हमें उस अवस्था से मुक्ति देकर जन्म देते हैं । प्रभु की दूसरी कृपा के तत्काल दर्शन होते हैं जब बिना दाँत के शिशु के लिए शिशु से पहले माता के स्तनों में प्रभु अमृत-तुल्य दूध भेजते हैं ( विज्ञान ने भी माना है कि माता का दूध शिशु के लिए अमृत-तुल्य है और उसका कोई विकल्प संभव नहीं है ) । फिर प्रभु की तीसरी कृपा देखें कि गर्भ ठहरते ही माता के हृदय में ममता का बीज बो देते हैं । एक झगड़ालु और क्रोधी स्त्री भी जब माँ बनती है तो अपने शिशु को अपने स्वभाव के विपरीत प्यार और शान्ति से पालती है । वह स्त्री दुनिया के लिए ( अपने सास, ससुर, ननद, देवरानी, जेठानी के लिए ) कितनी भी बुरी क्यों न हो पर अपने शिशु के लिए सबसे भली माँ बनती है । यह मेरे प्रभु की शिशु पर ममतारूपी कृपा है । एक लोककथा के अर्न्तगत प्रभु के वाक्य हैं कि मैंने माँ में ममता इसलिए भरी की मैं हर समय हर पल शिशु का हित कर सकूं । यह सच है कि ममतारूप में प्रभु ही शिशु पर कृपा बरसाते रहते हैं। यह प्रभु कृपा की वर्षा निरंतर हमारे जीवन में होती चली जाती है, बस हमें उसे देखने हेतु भक्ति-नेत्र की जरूरत होती है अथवा भक्ति का चश्मा लगाना पड़ता है ।
भक्ति कभी भी प्रभु कृपा से उऋण होने हेतु नहीं करनी चाहिए । यह सोचना भी पाप है । क्योंकि मनुष्य के जीवन में भक्ति आई, यह भी प्रभु की कृपा है - प्रभु की सबसे बड़ी कृपा । भक्ति प्रभु कृपा पात्र बने रहने के लिए अनिवार्य साधन है । भक्ति की पहली किरण से ही जीवन में प्रभु कृपा के दर्शन होने लगते हैं । कृपा का दर्शन पाकर मन अभिभूत होता है और प्रभु की तरफ आकर्षित होता है ( संसार से, माया से मोहभंग होता है ) । भक्ति की दूसरी किरण से जीव के हृदय में प्रभु का वास जाग्रत हो उठता है और हमें प्रभु प्रिय लगने लगते हैं ( प्रभु का वास तो सभी जीव में है पर भक्ति उसे जाग्रत करती है ) । भक्ति की तीसरी किरण इस प्रभु-प्रेम को इतना प्रबल बना देती है, प्रभु-प्रेम को इतना बल प्रदान करती है कि यह प्रभु-प्रेम, प्रभु-आसक्ति का रूप ले इतनी फलती-फुलती है कि प्रभु-साक्षात्कार करवा देती है और जीव-शिव का मिलन हो जाता है ।
मनुष्य जीवन का परम सूत्र है कि अपनी बुद्धि से प्रभु-कृपा का दर्शन हर अवस्था में करने की कला सीखनी चाहिए और प्रभु-कृपा को जीवन में निरंतर बनाये रखने हेतु भक्ति का अविलम्ब आश्रय लेना चाहिए।
भक्ति करते हुए आप पायेंगे कि जीवन की प्रतिकूलता में भी आपको भगवत-कृपा के दर्शन होने लगेंगे । आपकी इच्छा के विपरीत कुछ होगा तो भी आपको लगेगा कि यह मेरे प्रभु की इच्छा के बिना नहीं हुआ - इसलिए यह भगवत-कृपा हुई और इसी में मेरा हित है। अपनी बुद्धि से प्रभु-कृपा के सदैव दर्शन और अपने हृदय में सदैव प्रभु भक्ति - यह मनुष्य जीवन की सच्ची उँचाई है ।
यहां '' सदैव '' शब्द, विशेष महत्व रखता है । हमारी बुद्धि कभी कभी प्रभु-कृपा के दर्शन अवश्य करती है पर ज्यादा समय प्रभु ने कृपा नहीं की - इसका भान हमारी बुद्धि हमें कराती रहती है । ऐसे ही कभी कभी हमारे हृदय में भक्ति भाव भी रमता है, पर ज्यादातर समय मन में संसार ही रमता है । पर मनुष्य जीवन की सच्ची उँचाई तभी है जब सदैव हमारी बुद्धि प्रभु-कृपा के दर्शन करे और सदैव हमारा हृदय प्रभु भक्ति में रमे । ऐसा करने का अभ्यास करते ही बुद्धि में निर्मलता और हृदय में निर्मलता आने लगती है । निर्मलता का अर्थ है कि जो बुराई हमारे बुद्धि और हृदय में जमी बैठी थी, वह धुलने लगी, हटने लगी ।
निर्मल बुद्धि में ही मेरी करूणामयी माता का वास होता है और निर्मल हृदय में ही मेरे करूणामय प्रभु का वास होता है ।
__________________________________________________________
लेखक परिचय: परम सांत्वना केवल प्रभु के प्रति भक्ति से ही आती है | संदीप आर करवा पेननाम चंद्रशेखर के तहत प्रभु के प्रति समर्पण पर लेख लिखते हैं | लेखक की वेबसाइट http://www.devotionalthoughts.in में दर्ज विचार आपको सर्वशक्तिमान ईश्वर के करीब ले जाएगा |
No comments:
Post a Comment