Wednesday 19 September 2012

भक्ति की शक्ति

लेख सार : प्रभु भक्ति की अदभूत शक्ति के दर्शन करवाता लेख  | हर परिस्थिती में सदैव दृढ प्रभु भक्ति का आह्रान करता लेख   | 
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एक नन्हे दुधमुँहे बच्चे को अर्धनग्न अवस्था में भुखा-प्यासा तपती धुप में अपनी माँ की गोद में भीख मांगने हेतु दया का पात्र बनकर शहर के चौराहो पर भीख मागते आपने अकसर देखा होगा ।

वह नन्हा बच्चा इतना छोटा है, दुधमुहाँ है कि इस जन्म में तो उसने कुछ भी गलत नही किया होगा क्‍योंकि अभी तक उसने जमीन पर स्वतः पैर तक नही रखे, उसके मुँह से वाणी निकलनी भी प्रारंभ नही हुई ।

जरा सोचें उसकी इस दुर्दशा का कारण । या तो पूर्व जन्म / जन्मों में उसने बहुत पापकर्म किये होगें या फिर निश्‍चित ही नगन्य प्रभु-भक्ति की होगी । क्‍योंकि अगर प्रभु-भक्ति करता तो भक्ति में इतनी प्रबल शक्ति होती है कि कई पूर्व जन्मों के संचित पाप भी क्षणभर में काट देती है । प्रभु की कृपा क्षणभर में उतने पाप काटती है जितने पाप हम जन्म-जन्मों में भी संचित नहीं कर सकते।

प्रभु भक्ति की पहली शक्ति है कि वह जन्म-जन्मों के संचित पाप काटती है । प्रभु भक्ति की दुसरी शक्ति है (जो पहली से भी अहम है) कि जीव को उस जन्म में पापकर्म करने ही नहीं देती । क्‍योंकि सच्ची भक्ति हमारी बुद्धि और हृदय को इतनी शुद्ध और निर्मल कर देती है कि हमारी अन्तरात्मा की आवाज हमें गलत कार्य करने के पहले रोक देती है । भक्ति करते करते अन्तरात्मा की आवाज दृढ और साफ सुनाई देने लगती है । अन्तरात्मा की आवाज सुनने और मानने से वह और बुलंद होती चली जाती है । इससे ठीक विपरित अभक्त को अन्तरात्मा की आवाज सुनाई पडनी बंद हो जाती है ।

अन्तरात्मा की आवाज क्या है ? यह सत-वाणी है यानी भीतर बिराजे सतचितानंद की वाणी है जो हमें पूण्यकर्म करने हेतु निरंतर प्रेरित करती है और पापकर्म से बचने के लिए सदा सचेत करती है ।

प्रभु भक्ति का बल देखें कि हमें अन्तरात्मा का दिशानिर्देश प्राप्त कराती रहती है जो अभक्त को कभी नहीं प्राप्‍त होता । भक्ति के कारण अन्तरात्मा की आवाज हमें उस जन्म में पापकर्म करने से रोकती है और भक्ति हमारे पूर्व जन्मों के संचित पापों को भी प्रभु कृपा दिला कर भस्‍म करवा देती है ।

पाप कटते ही हमें मनुष्‍य देह मिलता है और एक अच्छे, गुणशाली और सर्वसम्पन्न कुल में जन्म मिलता है । ऐसे कुल में जन्म मिलने पर और ऐसे जन्म का कारण / रहस्य समझने पर हमें उस जन्म में भी भक्ति की डोर निरंतर पकडे रखनी चाहिए । क्योंकि ऐसी अवस्था में जहाँ भक्ति ने हमारे संचित पापों को प्रभु-कृपा दिला कर क्षय करवाया हो, जिस कारण हमें मानव देह और उत्तम कुल मिला हो, अगर हम फिर से अपनी भक्ति को प्रबल करते हैं, तो उस जन्म में हमारे द्वारा होने वाले पापकर्म से भी भक्ति हमारी रक्षा करती है । भक्ति हमारे अन्तरात्मा की आवाज को प्रबल करती है जो हमें गलत कार्य करने से रोकती है । भक्ति मानव जीवन को परम उँचाई प्रदान कराती है और यहाँ तक की प्रभु-साक्षात्कार भी करवा दती है, जिससे आवागमन से सदैव के लिए मुक्ति मिल जाती है । मानव जीवन का एकमात्र लक्ष्य भी यही है

इसलिए अगर हमारा जन्म प्रतिकुलता में हुआ है (जैसे गरीब परिवार, आभाव इत्यादी) तो हमें उसे सुधारने हेतु, संचित पाप काटने हेतु और अन्तरात्मा की सही आवाज सुनकर अभाव के कारण पापकर्म से बचने हेतु प्रभु-भक्ति करनी चाहिएऔर अगर हमारा जन्म अनुकूलता में हुआ है (जैसे सम्पन्न परिवार, वैभव इत्यादी) तो हमें प्रभु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन हेतु, इस जन्म में और उँचाईया पाने हेतु (सिद्धांत और जीवनमूल्यो की उँचाई , पूण्यअर्जन से उँचाई , न की कोरी धन-सम्पन्नता की, ऐशो-आराम और शान-शौकत की दिखावटी उँचाई) । और अन्तरात्मा की सही आवाज सुनकर धन-सम्पन्नता के मद में पापकर्म से बचने हेतु प्रभु-भक्ति करनी चाहिए

इस जन्म की प्रतिकुलता में यह मानना चाहिए कि पूर्व जन्मों में प्रभु भक्ति के आभाव के कारण, प्रभु कृपा से वंचित होने के कारण ऐसा हुआ है । इसलिए तीव्र प्रभु भक्ति करके इस जन्म में इस प्रारब्ध को सुधारना चाहिए ।

इस जन्म की अनुकूलता में यह मानना चाहिए कि पुर्व जन्मों में प्रभु भक्ति के प्रभाव के कारण, प्रभु कृपा द्वारा सिंचित होने के कारण ऐसा हुआ है । इसलिए तीव्र प्रभु भक्ति से इस क्रम को बनाये रखना चाहिए ।

दोनों ही अवस्था में प्रभु भक्ति पथ पर चलते रहना ही मनुष्‍य जीवन को सफल और श्रेष्‍ठ बनाने के लिए एकमात्र और सबसे सरल साधन है

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लेखक परिचय:   परम सांत्वना केवल प्रभु के प्रति भक्ति से ही आती है | संदीप आर करवा पेननाम चंद्रशेखर के तहत प्रभु के प्रति समर्पण पर लेख लिखते हैं |  लेखक की वेबसाइट http://www.devotionalthoughts.in  में दर्ज विचार आपको सर्वशक्तिमान ईश्वर के करीब ले जाएगा |

प्रभु कृपा और भक्ति


लेख सार : हर परिस्थिती में सदैव प्रभु कृपा के दर्शन करने का आह्रान करता लेख |
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जीव पर पल पल, हर पल प्रभु की कृपा- वृष्टि होती रहती है । उस कृपा के दर्शन करने हेतु हमें भक्ति-नेत्र चाहिए । मनुष्य अपने साधारण नेत्रों से अपने जीवन में प्रभु कृपा का पूर्ण अनुभव नहीं कर पाता । प्रभु के कृपा के ऋण से उऋण होना जीव के लिए कतई संभव नहीं, इसकी कल्पना तक नहीं करनी चाहिए ।

जीव को जो करना चाहिए वह यह कि प्रभु कृपा का निरंतर पात्र बने रहने का यत्न करते रहना चाहिए और ऐसा करने के लिए भक्तिपथ पर चलना अनिवार्य है ।

जब हम अपने जीवन में प्रभु कृपा के बारे में सोचेंगे तो पायेंगे कि माता के गर्भ में छटपटाते हुए भयंकर पीडा में हमें प्रभु कृपा का पहला दर्शन होता है, जब प्रभु हमें उस अवस्था से मुक्ति देकर जन्म देते हैं । प्रभु की दूसरी कृपा के तत्काल दर्शन होते हैं जब बिना दाँत के शिशु के लिए शिशु से पहले माता के स्तनों में प्रभु अमृत-तुल्य दूध भेजते हैं ( विज्ञान ने भी माना है कि माता का दूध शिशु के लिए अमृत-तुल्य है और उसका कोई विकल्प संभव नहीं है ) । फिर प्रभु की तीसरी कृपा देखें कि गर्भ ठहरते ही माता के हृदय में ममता का बीज बो देते हैं । एक झगड़ालु और क्रोधी स्त्री भी जब माँ बनती है तो अपने शिशु को अपने स्वभाव के विपरीत प्यार और शान्ति से पालती है । वह स्त्री दुनिया के लिए ( अपने सास, ससुर, ननद, देवरानी, जेठानी के लिए ) कितनी भी बुरी क्यों न हो पर अपने शिशु के लिए सबसे भली माँ बनती है । यह मेरे प्रभु की शिशु पर ममतारूपी कृपा है । एक लोककथा के अर्न्तगत प्रभु के वाक्य हैं कि मैंने माँ में ममता इसलिए भरी की मैं हर समय हर पल शिशु का हित कर सकूं । यह सच है कि ममतारूप में प्रभु ही शिशु पर कृपा बरसाते रहते हैं। यह प्रभु कृपा की वर्षा निरंतर हमारे जीवन में होती चली जाती है, बस हमें उसे देखने हेतु भक्ति-नेत्र की जरूरत होती है अथवा भक्ति का चश्मा लगाना पड़ता है ।

भक्ति कभी भी प्रभु कृपा से उऋण होने हेतु नहीं करनी चाहिए । यह सोचना भी पाप है । क्योंकि मनुष्य के जीवन में भक्ति आई, यह भी प्रभु की कृपा है - प्रभु की सबसे बड़ी कृपा । भक्ति प्रभु कृपा पात्र बने रहने के लिए अनिवार्य साधन है । भक्ति की पहली किरण से ही जीवन में प्रभु कृपा के दर्शन होने लगते हैं । कृपा का दर्शन पाकर मन अभिभूत होता है और प्रभु की तरफ आकर्षित होता है ( संसार से, माया से मोहभंग होता है ) । भक्ति की दूसरी किरण से जीव के हृदय में प्रभु का वास जाग्रत हो उठता है और हमें प्रभु प्रिय लगने लगते हैं ( प्रभु का वास तो सभी जीव में है पर भक्ति उसे जाग्रत करती है ) । भक्ति की तीसरी किरण इस प्रभु-प्रेम को इतना प्रबल बना देती है, प्रभु-प्रेम को इतना बल प्रदान करती है कि यह प्रभु-प्रेम, प्रभु-आसक्ति का रूप ले इतनी फलती-फुलती है कि प्रभु-साक्षात्कार करवा देती है और जीव-शिव का मिलन हो जाता है

मनुष्य जीवन का परम सूत्र है कि अपनी बुद्धि से प्रभु-कृपा का दर्शन हर अवस्था में करने की कला सीखनी चाहिए और प्रभु-कृपा को जीवन में निरंतर बनाये रखने हेतु भक्ति का अविलम्ब आश्रय लेना चाहिए।

भक्ति करते हुए आप पायेंगे कि जीवन की प्रतिकूलता में भी आपको भगवत-कृपा के दर्शन होने लगेंगे । आपकी इच्छा के विपरीत कुछ होगा तो भी आपको लगेगा कि यह मेरे प्रभु की इच्छा के बिना नहीं हुआ - इसलिए यह भगवत-कृपा हुई और इसी में मेरा हित है। अपनी बुद्धि से प्रभु-कृपा के सदैव दर्शन और अपने हृदय में सदैव प्रभु भक्ति - यह मनुष्य जीवन की सच्ची उँचाई है ।

यहां '' सदैव '' शब्द, विशेष महत्व रखता है । हमारी बुद्धि कभी कभी प्रभु-कृपा के दर्शन अवश्य करती है पर ज्यादा समय प्रभु ने कृपा नहीं की - इसका भान हमारी बुद्धि हमें कराती रहती है । ऐसे ही कभी कभी हमारे हृदय में भक्ति भाव भी रमता है, पर ज्यादातर समय मन में संसार ही रमता है । पर मनुष्य जीवन की सच्ची उँचाई तभी है जब सदैव हमारी बुद्धि प्रभु-कृपा के दर्शन करे और सदैव हमारा हृदय प्रभु भक्ति में रमे । ऐसा करने का अभ्यास करते ही बुद्धि में निर्मलता और हृदय में निर्मलता आने लगती है । निर्मलता का अर्थ है कि जो बुराई हमारे बुद्धि और हृदय में जमी बैठी थी, वह धुलने लगी, हटने लगी ।

निर्मल बुद्धि में ही मेरी करूणामयी माता का वास होता है और निर्मल हृदय में ही मेरे करूणामय प्रभु का वास होता है ।

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लेखक परिचय:   परम सांत्वना केवल प्रभु के प्रति भक्ति से ही आती है | संदीप आर करवा पेननाम चंद्रशेखर के तहत प्रभु के प्रति समर्पण पर लेख लिखते हैं |  लेखक की वेबसाइट http://www.devotionalthoughts.in  में दर्ज विचार आपको सर्वशक्तिमान ईश्वर के करीब ले जाएगा |

Monday 7 May 2012

भक्ति बिना पूरा जीवन व्यर्थ

लेख सार: प्रभु भक्ति के साथ जीवन यापन एंव  सैर सपाटा,  मौज मस्ती, एशो आराम और आने वाली पीढियों के लिए धन-संपति संग्रह में लगे जीवन के बीच तुलना की गई है। मानव जीवन का श्रेप्ठत्तम उपयोग पर लेख प्रकाश डालता है।
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एक कहानी / लोककथा प्रायः सबने सुन रखी होगी - एक ज्ञानी नाव में बैठकर नदी पार करते वक्त नाविक से अपना ज्ञान बखान कर रहा था । ज्ञानी नाविक से कह रहा था कि तुमनें पढा नही, अनपढ हो इसलिए तुम्हारा चौथाई जीवन बेकार हो गया। तुम्हें अमुक बात का ज्ञान नही इसलिए आधा जीवन बेकार हो गया, तुम्हें अमुक बात का भी भान नही इसलिए पौना जीवन बेकार हो गया । इतने मे भयंकर वर्षा होने लगी, वर्षा का जल नाव में भर गया और नदी में भी भयंकर उफान उठा। अब तक नाविक चुप बैठा था और सुन रहा था। अब नाविक के बोलने की बारी थी, उसने ज्ञानी से पुछा कि आपको तैरने का ज्ञान है क्या ? ज्ञानी ने कहा - नही, तो नाविक बोला - अब तो आपका पूरा जीवन ही बेकार हो गया। यह कह कर नाविक डुबती नाव से तैर कर अपनी जान बचाने के लिए कूद पडा । ज्ञानी को तैरना नही आता था इसलिए नाव के साथ ही डूब गया।

आध्यात्मिक तौर पर इस कथा को ऐसे समझना चाहिए । एक आधुनिक दौर का मौज मस्ती करने वाला मौजी नामक व्यक्ति एक सरलहृदय प्रभु भक्ति में रमने वाले भक्त से पुछता है कि क्या तुमने विदेश में सैर सपाटा किया । भक्त कहता है - नहीं, तो मैजी कहता है कि चौथाई जीवन व्यर्थ कर दिया । मौजी दुसरा प्रश्न पुछता है भक्त से कि क्या तुमने जीवन में मौज-मस्ती, ऐशो-आराम किया । भक्त कहता है - नहीं, तो मौजी कहता है कि तुमने अपना आधा जीवन ही व्यर्थ कर दिया । मौजी तीसरा प्रश्न पुछता है भक्त से कि क्या तुमने अपनी आने वाली पीढियों के लिए धन-संपति की व्यवस्था की। भक्त कहता है - नही, तो मौजी कहता है कि पौना जीवन व्यर्थ कर लिया ।

मौजी भक्त के लिए अफसोस करता है कि भक्ति में रम के क्या जीवन जिया, न सैर-सपाटा किया, न ऐशो-आराम किया और न ही आने वाली पीढी के लिए धन-संपति की व्यवस्था की । क्योंकि मौजी ने यह सब कुछ भरपूर मात्रा में किया था, इसलिए उसे अपने आप पर गर्व अनुभव होने लगता है।

इतने में मौजी के दरवाजे मृत्यु ने दस्तक दी। वह भयंकर रूप से बिमार हुआ और मृत्यु शय्या पर आ गया। भक्त मौजी के पास खडा था पर उसे कुछ पुछने की जरूरत ही नही पडी। मौजी की अंतरआत्मा ने ही मौजी से पुछ लिया कि क्या तुमने प्रभु भक्ति करके भवसागर पार करने का उपाय किया। मौजी ने काँपते हुये स्वर से कहा - '' नही किया '' । अंतरआत्मा ने धिक्कारते हुये कहा कि तुमने अपना पूरा मानव जीवन ही व्यर्थ कर लिया । जैसे ज्ञानी का नदी पार नहीं कर पाने के कारण अंत भयंकर हुआ, वैसे ही मौजी का भवसागर पार नहीं कर पाने के कारण अंत भयंकर हुआ। दोनों ही डूब गए, एक नदी में, दूसरा भवसागर में ।

अधिकत्तर मनुष्यों की विडंबना भी यही है कि मानव जीवन जीने की कला तो बहुत अच्छी तरह से सीख ली और उसे प्रभावी अंजाम देने में लगे हुये हैं । पर मानव जीवन के बाद उनका क्या हश्र होगा यह पहलु उनसे अछुता रह गया क्योंकि उसके लिए तैयारी करना शायद वे भुल गये ।


वर्तमान जीवन जीने की कला तो जानवर भी बहुत अच्छी तरह से जानते हैं।पर मृत्यु उपरान्त की व्यवस्था जैसे आवागमन से मुक्ति, श्रीकमलचरणों में सदैव के लिए आश्रय और परमानंद की प्राप्ति तो सिर्फ और सिर्फ मानव जीवन में किये प्रयासो से ही संभव हो सकता है। यह प्रयास भक्ति का है, यह प्रयास प्रभु से जुडने का है, यह प्रयास प्रभु के बनने का है, यह प्रयास प्रभु को अपना बनाने का है।

वर्तमान जीवन में ऐशो-आराम, सैर-सपाटा, अगली पीढी हेतु संग्रह के प्रयास बहुत तुच्छ और गौण हैं। श्रेष्ठत्तम प्रयास निश्चल भक्ति द्वारा प्रभु प्रिय बनकर मृत्यु उपरान्त सदैव के लिए निश्चिंत होने का है।


यह स्वर्णिम अवसर प्रभु ने हमें मानव जीवन देकर दिया है , इसे गँवाना नही चाहिए। अगर गँवा दिया तो कितनी योनियों के बाद, इन योनियों के कर्मफल के कारण कितनी यातनाओ को भोगने के बाद, यह मानवजीवनरूपी अवसर दोबारा कब मिलेगा - यह सोचकर अविलम्ब इस वर्तमान मानवजीवनरूपी अवसर का प्रभु भक्ति में डुबकर श्रेष्ठत्तम उपयोग करना चाहिए ।
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लेखक परिचय:   परम सांत्वना केवल प्रभु के प्रति भक्ति से ही आती है | संदीप आर करवा पेननाम चंद्रशेखर के तहत प्रभु के प्रति समर्पण पर लेख लिखते हैं |  लेखक की वेबसाइट http://www.devotionalthoughts.in में दर्ज विचार आपको सर्वशक्तिमान ईश्वर के करीब ले जाएगा |

Friday 13 April 2012

अनुकूलता और प्रतिकुलता में प्रभु-दर्शन

लेख सार  : सफलता और सुख के समय प्रभु की कृपा एवं विफलता और दुःख के समय में प्रभु की दया को याद रखने पर केन्द्रित लेख है    | वास्तव में, हम शायद ही कभी हमारी सफलता और सुख में प्रभु की कृपा याद रखते हैं | और वास्तव में, हम शायद ही कभी हमारी विफलता और   दुःख के   लिए प्रभु को दोष देने से चुकते हैं   |
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हमारे जीवन में जो कुछ भी अनुकूल घटना घट रही है , जो अनुकूलता है उसे प्रभु की कृपा प्रसादी माननी चाहिए । ऐसे ही हमारे जीवन में जो प्रतिकुल घटना घट रही है , जो प्रतिकुलता है उसे स्वंम के कर्मफल ( पूर्व संचित कर्मो का कर्मफल ) जिसको मेरे प्रभु ने दया करके बहुत बहुत कम करके हमें भोगने के लिए दिया है - ऐसा मानना चाहिए। हमारा दृष्टिकोण ऐसा होना चाहिए कि दोनों ही अवस्था में प्रभु की कृपा के दर्शन हो , प्रभु के कृपा का सदैव भान रहे। क्योंकि दोनों अवस्थाओ में प्रभु कृपा को देखने वाला ही प्रभु का प्रिय होता है ।


इस अनुपम सूत्र का आभास हमारे जीवनदृष्टि में शुद्धता आने पर ही संभव है। क्या है यह अनुपम सूत्र । पहला सूत्र - अनुकूलता में प्रभु कृपा का सदैव दर्शन करना चाहिए । दुसरा सूत्र - प्रतिकुलता में प्रभु की दया ( विपरित कर्मफल को प्रभु ने कम करने की दया की , इस भाव ) का सदैव दर्शन करना चाहिए।

पर हम मुर्ख जीव अनुकूलता को अपने संचित पूण्यकर्मो का स्वअर्जित फल समझ कर भोगते हैं और प्रतिकुलता प्रभु द्वारा भेजी गई ( देव बाधा रूप में ) मानते हुए प्रभु के उपर उसका दोष मढने से भी नही चुकते। कितना मुर्ख जीव है कि प्रतिकुलता में प्रभु दया के दर्शन नही करके उलटे प्रभु को दोष देने का भाव को अपने मन और बुद्धि में जाग्रत कर बैठता है। प्रभु के प्रति दोष का भाव हमारे मन में कभी पनपना भी नही चाहिए क्योंकि ऐसा कभी हो ही नही सकता कि मेरे प्रभु से कोई दोषयुक्त गलती होवे , ऐसी कल्पना मात्र भी करना बहुत बडा पाप है । पर हम जीवन मे अकसर ऐसा करते हैं।

उद्धाहरण स्वरूप एक घर का जवान बेटा , बुढे माता-पिता का एकमात्र सहारा , बहिनों का एकमात्र भाई जब कोई दुर्घटना मे चला जाता है तो परिवार के लोग यह कहते मिलेंगें कि प्रभु ने अन्याय कर दिया । यह सोच ही कितनी अपवित्र है, जुबान पर ऐसा शब्द आना कितना बडा पातक है। क्योंकि क्या हमें उस मृतक के पूर्वजन्मों के लेखे-जोखे का , संचित कर्मफल का पता भी है की उसके क्या क्या पूर्व कर्म रहे हैं।

प्रतिकुलता के वक्त हमारी पवित्र सोच यह होनी चाहिए कि मेरे प्रभु ने मेरे संचित बुरे कर्मो का फल कई गुण घटाकर मुझे भोगने हेतु दिया है। अगर मेरे संचित बुरे कर्मो का फल मेरे प्रभु नही घटाते तो मैं भोगने में असर्मथ होता ( यानी जितने पापकर्म मेरे द्वारा पूर्व जन्मों में हुये हैं उसका भोग भोगना भी मेरे लिए संभव नही था, इसलिए प्रभु ने कृपा करके उसे कई गुणा कम करके मेरे भोगने लायक बनाया है )। भोगने की शक्ति भी प्रभु ही प्रदान करते हैं । उद्धाहरण स्वरूप जवान बेटा मरने पर पहले दिन घर मे कोहराम मचता है पर १२ वे दिन तक सभी घटना से तालमेल बैठा लेते हैं। कहते हैं '' बिता हुआ समय मरहम का काम करता है '' । यह समयरूपी मरहम ( प्रतिकुलता भोगने की शक्ति) भी प्रभु की ही देन है , प्रभु की ही अनुकम्पा है ।

ऐसे ही अनुकूलता के वक्त भी हमारी पवित्र सोच यही होनी चाहिए कि मेरे प्रभु ने मेरे संचित अच्छे कर्मो का फल कई गुणा बढाकर मुझे भोगने हेतु दिया है । इसमें भी प्रभु कृपा के दर्शन अनिर्वाय रूप से करने की आदत डालनी चाहिए अन्यथा यह अहंकार पनपते देर नही लगेगा कि यह मेरे पूर्व संचित शुभकर्मो के कारण मेरा स्वअर्जित भाग्य है।


मेरे प्रभु का एक करूणायुक्त सिद्धांत है - जीव के पुण्यकर्मो का फल कई गुणा बढा देना और जीव के पापकर्मो का फल कई गुणा कम कर देना । अगर ऐसा नही होता तो आज हम जिस भी अवस्था में हैं ऐसी अवस्था में नही होते ( यानी अगर परिस्थिति हमारे अनुकूल है तो हमारे संचित पुण्यकर्मो के बल पर इतनी अनुकूल नही हो सकती थी और अगर परिस्थिति हमारे प्रतिकुल है तो हमारे संचित पापकर्मो के बल पर इससे बहुत अधिक प्रतिकुल हो सकती थी )। दोनों ही अवस्था मे प्रभु कृपा के कारण ही आज हम जैसे भी हैं वैसे हैं। इसलिए जीवन में हर पल , हर स्थिति में प्रभु कृपा के दर्शन करने की आदत जीवन में बनानी चाहिए।




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लेखक परिचय:   परम सांत्वना केवल प्रभु के प्रति भक्ति से ही आती है | संदीप आर करवा पेननाम चंद्रशेखर के तहत प्रभु के प्रति समर्पण पर लेख लिखते हैं |  लेखक की वेबसाइट  http://www.devotionalthoughts.in में दर्ज विचार आपको सर्वशक्तिमान ईश्वर के करीब ले जाएगा |